“प्रभु” की पूजा पहले करें या “कुल देवता” की?

“कुल देवी”  आपके ही कुल के पूर्वज “दादी माँ” है. जब वे “स्त्री” रूप में थीं,

तब उन्होंने स्वयं जिनेश्वर भगवान की पूजा की है.

(उस समय इतने सम्प्रदाय अस्तित्त्व में भी नहीं थे और हर जैनी जिन-पूजा ही करता था. हर गाँव में कम से कम एक जैन मंदिर होते हुए भी आज श्रावकों का  “पुण्य क्षीण” होने के कारण जैनों  में “दुर्बुद्धि” आई है कि वो जिन मंदिर जाने से कतराते हैं जबकि बाकी “सभी” (non-jain)  मंदिर जाते हैं.

 

– देखें “ओसवाल वंशावली”- जिसमें ओसियां माता की उत्पत्ति और जिनदत्त सूरी द्वारा बनायी गयी जातिओं का वर्णन है. . ).

ओसियां माता की उत्पत्ति लगभग २००० वर्ष पूर्व हुई है. दूसरे जो देवता आपके कुल में पूजे जाते हैं वो पितर जी हैं जो आपके ही परिवार के पूर्वज हैं जो मरणोपरांत “देव “बने हैं परन्तु “घर” से “राग” के कारण “व्यंतर” योनि में जन्मे हैं.

सवेरे उठते ही यदि माता-पिता को प्रणाम करते हैं, तो आप अपने कुल देवी और देवता को भी प्रणाम कर सकते हैं.

परन्तु जब “पूजा” करने की बारी आये तो पूजा तो पहले भगवान की ही होगी.

दिवाली के समय भी “घर की कुलदेवी” की पूजा सबसे बाद में होती है.

 

कुलदेवता “कुल” की रक्षा करते हैं.
उनकी स्थिति “द्वारपाल” जैसी है.

जबकि “भगवान” की श्रेणी “जग नाथ” की है.
दोनों की आपस में कोई तुलना नहीं हो सकती.

“पावर” “प्रधान मंत्री” के पास ज्यादा होता है

या देश की शत्रु से “रक्षा” करने के लिए युद्ध लड़ने वाले “सेना नायक” के पास?

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