meditation by jainmantras, focus on thoughts

ध्यान की सर्वोच्च स्थिति – भाग 2

पहले भाग 1 पढ़ें :

जिज्ञासा:
ये तो सारी सामान्य बातें हैं. कुछ “जोरदार” हो तो बताओं!

उत्तर:
एक दिगंबर जैन मुनि को देखो.
दिगंबर जैन मुनि अपने आप में एक आश्चर्य है.
परन्तु दिगंबर जैन मुनि में आश्चर्य किस बात का है?
उनके दिगंबर होने का?
जो बात हम हमारे लिए सोच भी नहीं सकते, वो करके दिखाते हैं.
चिंतन करो कि ये कैसे संभव हुआ?
क्या उनका जन्म इसी  समाज में नहीं हुआ है जिस समाज में हमारा हुआ है ?
तो फिर उनके “दिगंबर” होने का कारण क्या है?
उत्तर मात्र उन्हें “गुरु” का सान्निध्य प्राप्त हो गया – ये नहीं है.

 

प्रश्न खड़ा है : क्या हमें गुरुओं का सान्निध्य प्राप्त नहीं हुआ है?
उत्तर: हुआ तो है.
प्रश्न: तो फिर वो “चेतना” क्यों नहीं  आई?
उत्तर है : हम में चेतना होती तो हम भी पहुंचे हुवे संत होते!

जिज्ञासा:
आप तो बात को कहीं से कहीं और ले जाते हो. जिज्ञासा ये थी कि  कुछ “जोरदार” हो तो बताओं!

 

उत्तर:
“जोरदार” बात करने के लिए ना सिर्फ “जोरदार” भूमिका चाहिए, बल्कि सामने वाला भी “जोरदार” हो तो मजा आता है.
“ध्यान” में बैठते ही मनुष्य “देह” (शरीर) से ऊपर उठ जाता है यानि की “शरीर” के अंग हैं या नहीं, इसका भी आभास उसे नहीं रहता, एक स्टेज के बाद.
“दिगंबर” जैन मुनि को तो इस प्रकार के “ध्यान” की भी आवश्यकता  नहीं रहती क्योंकि उनका “ध्यान” ही अपने “शरीर” की ओर नहीं है.
उनका ध्यान है मात्र आत्मा पर!

हम तो  आँखें बंद कर के भी “आत्मा का ध्यान” कर सकें. तो बहुत है.

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