मंत्र जप करने वाले में कौनसी आदत होनी चाहिए?

मंत्र सिद्धि देता है.
सिद्धि से कार्य संपन्न होते हैं.
कार्य संपन्न होने से मन में संतोष होता है, प्रसन्नता होती है.
मन में हर समय प्रसन्नता रहने का मतलब ही मंत्र सिद्ध हो गया है.
कहने का अर्थ ये है कि मंत्र जाप करने वाले के  मन में अत्यंत धैर्य और विश्वास (patience and confidence) होना चाहिए.
परन्तु ये सब संभव तभी है जब साधक सत्य बोलने का अभ्यास कर ले.
“झूठ  बोले बगैर आजकल काम चलता नहीं है,” इस “पाखण्ड” का अपने मन से “अंतिम संस्कार” सदा के लिए कर दे.

 

उच्च मंत्र सिद्धि उसी को मिलती है –  
जो सत्य बोलता है,
अहिंसा को अपनाता है,

ब्रह्मचर्य धारण करता है,
चोरी नहीं करता और

अपने लिए मंत्र सिद्धि नहीं करता, समाज के लिए करता है
यानि अपरिग्रह को अपनाता है.

 

“साधना” करने वाला “सत्य”भाषण नहीं करेगा तो कौन करेगा?
क्या झूठ बोलने वाले को “संत” कहा जा सकता है?

शंका:
तो क्या “साधक” और “संत” में कोई फर्क नहीं है?
उत्तर:
“साधक” कुछ “साधना” चाहता है, इसलिए साधना करता है.
“संत” ने “साध” लिया है.
यदि “समझे जाने  वाले” संत ने कुछ साधा नहीं है, तो उसे क्या कहेंगे?
उत्तर है: “साधक”
और यदि वो कुछ भी “साधना” नहीं करता है तो उसे क्या कहेंगे?
एक “सामान्य” व्यक्ति जिसने “धर्म” का मात्र चोगा पहना है.

 

शंका:

अच्छा, फिर यदि साधक को सिद्धि मिल गयी हो और संत के रूप में भी ना जाना जाता हो, तो उसे क्या कहेंगे?

उत्तर:

पहली बात तो ये है कि साधक को इससे मतलब नहीं है कि लोग उसे किस दृष्टिकोण से देखते हैं.
वो तो स्वयं में ही मस्त है.
जो सिद्धि का दिखावा करता है, वो पाखंडी है (भले ही संत का चोगा पहन लिया हो).

 

व्यक्ति सच्चा संत होता है अपने आचरण से.
जिसका आचरण सच्चा है, वही संत है.
वर्तमान में इसका श्रेष्ट उदाहरण है: डॉ. अब्दुल कलाम!
ऐसे व्यक्ति को किसी मंत्र सिद्धि की आवश्यकता नहीं होती.
वह तो स्वयं ही “सिद्ध-पुरुष” होता है.

(जैन धर्म में पूजा “गुणों” की होती है, भले ही वो किसी भी सम्प्रदाय से सम्बंधित क्यों ना हो –  एक “मिसाइल मैन” के रूप में जाने वाला व्यक्ति वास्तव में “शांति दूत” बना, ये क्या कम आश्चर्यजनक है)?

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