नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप-5

पहले नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप- 1-4 पढ़ें.

जैन धर्म की शुरुआत ही “नवकार महामंत्र” से होती है.
किसी भी अन्य धर्म की शुरुआत किसी मंत्र से नहीं होती.
किसी भी अन्य धर्म को पालकर भी यदि कोई जीव मोक्ष गया है, तो “नमो सिद्धाणं” से उसे नमस्कार किया जाता है और अरिहंत देव भी सभी सिद्धों को नमस्कार करते हैं, भले ही किसी भी धर्म को मानकर कोई जीव क्यों ना सिद्ध बना हो,

और फिर चाहे पुरुष रूप लेकर सिद्ध बना हो, स्त्री रूप लेकर सिद्ध बना हो या नपुंसक जन्म लेकर भी सिद्ध क्यों ना बना हो!

 

18,000 श्लोक से नवकार महामंत्र की टीका श्री सिद्धसेन दिवाकर ने लिखी है.
उन्होंने इतना क्यों लिखा?
हर जैनी “नवकार” गुणता ही है, फिर इसकी जरूरत उन्होंने क्यों समझी?

“नवकार” को चौदह पूर्व का “सार” कहा गया है. मात्र कहा ही नहीं गया है, है भी.
जिन-धर्म में जो भी बात कही गयी है, उसका पक्का आधार है.

क्या हमें कभी इस बात का “एहसास” हुआ कि  
“नवकार” चौदह पूर्व का “सार” है?

 

यदि नहीं, तो क्यों नहीं हुआ?
कभी पूछा भी था किसी से?
कभी “ध्यान” भी हमने इस विषय पर लगाया
कि जरा देखें तो सही “सार” (essence) की “सुगंध” कहाँ से आ रही है?

गुलाब का इत्र बनता है गुलाब के फूलों से.
“रूह” गुलाब सबसे “pure” गुलाब का इत्र है.
“रूह” यानी “आत्मा!”

“रूह” शब्द “उर्दू” है. यानि  “आत्मा” की बात तो उर्दू में भी हुई है!

 

भक्तामर स्तोत्र की तीसरी गाथा में श्री मानतुंग सूरी आदिनाथ भगवान को कहते हैं : (इस गाथा के रहस्य को जानने के लिए अगली पोस्ट नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप-6 पढ़ें)

“बुध्द्या विनाsपि विभुधार्चित पाद पीठ…….. बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब”  
मुझ में इतनी बुद्धि नहीं है कि मैं आपकी “स्तुति” कर सकूँ फिर भी  जिस प्रकार एक बालक “समुद्र” के विस्तार को अपने नन्हे हाथों को फैलाकर बताने की कोशिश करता है, वैसे ही मैं आपकी “स्तुति” करने का “प्रयास” कर रहा हूँ.

 आगे नवकार महामंत्र का विराट स्वरुप- 6 पढ़ें.

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