जैन मन्त्रों के बारे में कुछ रोचक जानकारी-1

योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरी जिन्होंने श्री घंटाकर्ण महावीर को प्रत्यक्ष किया है –

१. “मन्त्रप्रवादपूर्व” में से अनेक मन्त्रों और विद्याओं का उद्धार (संशोधन) करके पहले के आचार्यों ने “मन्त्रकल्पशास्त्रों” की रचना की है.
२. “मन्त्रप्रवादपूर्व” और “विद्याप्रवाद पूर्व” का अभ्यास करके आचार्यों ने कई “कल्प” बनाये हैं. जिनमे : १ नवकार मन्त्रकल्प, उवसग्गहराममन्त्र कल्प, लघु शांतिकल्प, वृहदशान्ति कल्प और  शान्तिकरं कल्प, इत्यादि हैं.
३. “तिजयपहुत्त, नमिऊण  और भक्तामर के मंत्र और यन्त्र कल्प सुलभ (easily available) हैं.
४. ऋषिमण्डल – श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों सम्प्रदायों  में मान्य है.
५. जैन आचार्य “सूरिमंत्र” की आराधना करते हैं और “सूरिमंत्र” के यन्त्र को पूजते हैं.
(सूरिमंत्र के बारे में कुछ जानकारी जैनमंत्रास.कॉम में पहले से ही दी गयी है – पूरी नहीं दी गयी है क्योंकि श्रावकों को इसका “अधिकार” नहीं है).
६. उपाध्याय “वर्धमानविद्या” की आराधना करते हैं.

 

७. श्रावक  “ऋषिमण्डल मंत्र” की आराधना करते हैं.
(इस  के बारे में कुछ जानकारी jainmantras.com में पहले से ही दी गयी है).
८. श्री सकलचंद्र उपाध्याय ने सत्तर्भेदी पूजा, बारह भावना और प्रतिष्ठाकल्प, ध्यानदीपिका आदि ग्रंथों   की रचना की है.
९. श्री हीरविजयजी के समय से “शांतिस्नात्र, अष्टोत्तरी स्नात्र” की रचना की गयी है और उसमें “नवग्रह पूजन, दशदिक्पालपूजन, २४ तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षिणिओं के मंत्र और पूजन की व्यवस्था की गयी है.
(क्योंकि जैनी जैनेतर मन्त्रों और यक्षों को मानने लगे -ब्राह्मणों द्वारा ये कहने पर कि “जैन धर्म” में देव-देवियों का कोई स्थान नहीं है इसलिए तुम्हारे “कष्ट” का निवारण नहीं हो सकता).
१०. जैन शास्त्रों में जैनों के सोलह संस्कार के मंत्र हैं. वो “मन्त्रप्रवाद” नाम के पूर्व में से लिए गए हैं. इनका “निगमशास्त्र” में वर्णन है.

 

११. श्री ऋषभदेव प्रभु के समय भरत चक्रवर्ती ने “चार वेदों” की रचना की थी. इनका “निगमशास्त्रों” में वर्णन है. जैनों के “मन्त्रप्रवादपूर्व” से कुछ मंत्र लिए गए हैं. जैन आचार्यों ने “देवों” को प्रत्यक्ष करके जो “मन्त्रकल्प” रचे हैं, उन सबका भी “निगमशास्त्रों” में समावेश किया गया है (included in Nigamshastras).
१२. ये मंत्र गुरु उन्हीं के आगे प्रकाशित करते हैं जो इनके अधिकारी होते हैं. इसे गुरु परंपरा कहते हैं. वर्तमान में “परम्परागम” चल रहा है. किसी “गुरु” ने किसी देव को प्रत्यक्ष करके “नए मन्त्रों” की रचना नहीं की है. यदि की  है तो वो जानकारी में नहीं है.
१३. जैन आचार्य मिथ्यात्विदेवों को भी समकीति बना सकते हैं. शत्रुंजय पर स्थापित “कदर्पि  यक्ष” जब “मिथ्यात्वी ” हो गया था, तब “वज्रस्वामी” ने उसे उठकर फेंका और दूसरे “कदर्पि  यक्ष” को स्थापित किया.

 

१४. श्री आनंद विमल सूरी ने श्री मणिभद्रवीर की स्थापना की है. पालनपुर के पास “मगरवाड़ा” और बीजापुर के पास “आग्लोड” में! कुछ वर्ष पहले तपागच्छाधिपति  श्री इन्द्रदिन्नसुरी ने “पावागढ़” में श्री मणिभद्रवीर को प्रत्यक्ष किया है.
१५. पूर्व आचार्य ने मन्त्रों को गुप्त रखा है. अपने शिष्यों को भी योग्यता जानकर ही मंत्र दीक्षा दी है.
१६. समस्त वो देव-देवी जैनों के “साधर्मिक बंधु” हैं – जिन्होंने जैन धर्म स्वीकारा है.
१७. महाप्रभावक सहस्त्रावधानी श्री मुनिचन्द्रसोररी ने सन्तिकरं स्तोत्र  की रचना की है. इसमें देव-देवियों की सिद्धि की है.
१८. श्रीपालराजा ने “सिद्धचक्रमन्त्र-यन्त्र की साधना की थी, इसीलिए देवों ने उनकी सहायता हर समय की.
१९. मन्त्रों में मेस्मेरिस्म और हिप्टोनिस्म शक्तियां भरी पड़ी हैं. मंत्र देवता ही ये कार्य करते हैं.
२०. मंत्र सिद्ध किसे होता है:जिसे श्रद्धा हैं और परस्त्री त्यागी है ( परस्त्री का चिंतन भी ना करे).

आगे पढ़ें : जैन मन्त्रों के बारे में कुछ रोचक जानकारी-2

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