नमस्कार और आशीर्वाद – 1

जब हम किसी को नमस्कार करते हैं, तो सामने वाला उसे स्वीकार करता है.
जिसे नमस्कार किया जा रहा है और वो वास्तव  में “योग्य” है, तो “आशीर्वाद” भी देता है. विनयी है तो वापस नमस्कार भी करता है.
जो “गुरु” के रूप में जाना जाता हो और “नमस्कार” करने पर भी “आशीर्वाद” नहीं देता
तो समझ लेना कि उसमें अभी “गुरु” होने की पूरी योग्यता नहीं आई है.
जैसे नूतन दीक्षित भले ही श्रावकों के लिए नमस्कार करने के योग्य होते हैं,
पर उनका “हाथ” “आशीर्वाद” के लिए नहीं उठता.

 

जिसे नमस्कार किया जा रहा हो और वो खुद को बहुत  बड़ा समझता हो,
तो नमस्कार करने वाले की तरफ देखता भी नहीं, स्वीकार तो कैसे करेगा.
विशेषकर ये स्थिति तब आती है जब उसकी “पहचान” नमस्कार करने वाले व्यक्ति से नहीं होती.

जिन गुरुओं को “ऊँचे श्रावकों” की जरूरत है.
यानि जिन्हें “श्रावक” ऊँचे लगते हों और उनकी गरज महसूस होती हो
तो उनकी खुद की स्थिति कैसी  है,
ये अच्छी तरह समझा जा सकता है.

 

हकीकत में तो जिसे नमस्कार किया जाता है, उसे आशीर्वाद देना ही पड़ता है.
यदि वो नहीं देता तो इसका मतलब वो अभी आशीर्वाद देने के काबिल खुद को ही नहीं समझता.
इसका कारण ये भी है की उसे खुद अभी बहुत कुछ “प्राप्त” करना बाकी है.
जिसे खुद “प्राप्त” करना बाकी हो, वो दूसरों को “आशीर्वाद” भी कैसे दे पायेगा?

परन्तु जैन धर्म बहुत विशिष्ट है.

जैन धर्म के अनुसार यदि आप अपने गुरु को नमस्कार करो और वो आपको ना देखें या आशीर्वाद ना भी दें,
तो भी आपको तो लाभ मिल ही गया.
बस नमस्कार करते समय आपके मन के भाव बहुत ऊँचे होने चाहिए.

 

जितने श्रावक “सम्यक्तत्व” पाये हैं, वो “समकितधारी” साधुओं की अपेक्षा “असमकितधारी” साधुओं से ज्यादा पाये हैं. मतलब “चेले” तो तर जाते हैं पर “गुरु” वहीँ रह जाते हैं.
बार बार दीक्षा लेकर भी, आचार्य या गच्छाधिपति बनकर भी कई “जीव” सम्यक्त्त्व प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि वो “अभवी” होते हैं और कभी भी मोक्ष में जाने की योग्यता नहीं रखते.

फिर भी वे कइयों को मोक्ष जाने का रास्ता दिखाते हैं.
खुद के अंतर में भावना कुछ और होती है और बाहर में कुछ और.
श्रावक तो वो जो बाहर करते हैं, उसे देखकर उनके प्रति अहोभाव रखते हैं.

 

इसलिए उनके श्रावक तर जाते हैं और वो स्वयं “वहीं के वहीँ” रहते है.

वर्तमान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कुछ साधू परोक्ष रूप से “पैसा” लेकर “चातुर्मास” की जय बोलाते हैं,  पैसा देकर आचार्य बने हैं और जो आचार्य पैसा लेते हैं  वो हरदम “शास्त्र” पढ़ते नज़र आते हैं  कुछ बहुत बड़े समझे जाने वाले आचार्य “मनोनीत” आचार्य है, यानि उन्हें “पदवी” दी नहीं गयी है, फिर भी अपने को “आचार्य” कहते हैं. जो “गुरु” खुद ही अपने से बड़े “गुरुओं” का मान नहीं रखते और जिस सम्प्रदाय में प्रवर्त्तक गुरु ने जो कहा – वो ना करके खुद करते कुछ हैं फिर भी  श्रावकों को गुरु पर श्रद्धा रखने का पाठ पढ़ाते हों, तो ये बातें जानने पर नयी पीढ़ी पर उसका क्या असर पड़ेगा? क्या वो उनको “श्रद्धा” से नमस्कार कर पाएगी?

 

नयी पीढ़ी और अन्य बहुत ध्यान से पढ़ें कि ऊपर क्या लिखा है, साधू का आचार कैसा है, महावीर के नाम पर वो कैसे जी रहे हैं, उनकी वो जानें. पर हमें तो गुरु को ऊँचे भाव से नमस्कार ही करना  है, यदि “तिरना” है  तो. यदि “डूबना” है तो “मसालेदार” बातें और भी बहुत हैं.

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