अनेकांतवाद” और “मैं”

भगवान महावीर ने अनेकांतवाद का सिद्धांत दिया जिसके कारण एक “सच्चा जैनी” एक ही विषय को विभिन्न दृष्टिकोणों (various angles) से  एक साथ विचार कर सकता है.  इससे विचारों और मान्यताओं में जड़ता (rudeness) नहीं आती और पूरे संसार को विशाल दृष्टिकोण से देखा जाता है.

जब एक व्यक्ति “मानो कि आप” (A) अपनी बात बताने के लिए “मैं” शब्द बोलता हो  और जब दूसरा व्यक्ति (B) भी इसी तरह अपनी बात बताने के लिए “मैं” शब्द बोलता है, तो आपको उसके द्वारा “मैं” शब्द बोलने में कोई एतराज (objection) हो सकता है क्या? उत्तर स्पष्ट हैं: नहीं.

 

एकदम सरल भाषा में कहें तो “अनेकांतवाद” जिसे “स्याद्वाद” भी कहा जाता है, का मूल मंत्र है :

“ही” से “भी” तक पहुंचना.

मेरा विचार “ही” सही है,
ऐसा नहीं मानकर दूसरे का विचार “भी” सही है,
यही स्याद्वाद है.

क्योंकि एक ही विषय को दोनों अलग अलग “Vision” से देख रहे हैं. भारत में जिस समय “दिन” है उस समय एक अमेरिकन कहेगा कि -“नहीं हो सकता, अभी तो रात है!” जबकि एक भारतीय कहता है कि अभी “दिन” है. वस्तुत: दोनों अपनी अपनी बात सही कह रहे हैं. पर इसका मतलब ये नहीं कि भारत में रहने वाला एक भारतीय ये कहे कि चूँकि अभी अमेरिका में “रात” है, इसलिए हमें भी “दिन” को “रात” ही कहना चाहिए.

 

“मुझमें” जैसी आत्मा है, वैसी आत्मा न केवल “A (me)” में है, बल्कि प्रत्येक “जीव” में है.

यहाँ “”मुझमें” का अर्थ “शरीर” से है. और इस शरीर में अभी “आत्मा” मौजूद है.

शरीर का उपयोग मात्र “आत्मा” को रखने के लिए नहीं है, उससे अनेक कार्य किये जाते हैं.

कार्य किया जाता है “शरीर” के माध्यम से; पर करने-कराने वाला कहा जाता है : “आत्मा.”

क्योंकि “आत्मा” ही “कर्त्ता (करता) है, और “आत्मा” ही  भोक्ता (भोगता) है.

अब चिंतन करें कि “मैं” कौन हूँ?

error: Content is protected !!