“धर्म सम्प्रदाय” से “चिपक” कर रहना “मुक्ति” में बाधक है.

“व्यक्ति” जब किसी सीमा में “बंध” जाता है
तब अपना “विकास” खो देता है.

यदि “अपना” “व्यक्तित्त्व” नहीं खोना है
तो हमें किसी भी “धर्म-सम्प्रदाय” से नहीं बंधना है.

(क्योंकि “धर्म” तो “खुद” को अपनाना है ना !
हम कोई “सम्प्रदाय” चलाने के लिए “पैदा” थोड़ी हुवे हैं !

परंतु हम जिस सम्प्रदाय में हैं,
उसे “छोड़ना” भी नहीं है.

शंका
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कहना क्या चाहते हो?

उत्तर:
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अपनी रोजी रोटी के लिए तो परिवार
अपनी एक मात्र संतान को भी शहर के बाहर
कमाने के लिए भेज देता है.

परंतु इसका अर्थ ये नहीं कि
उसे “घर” से “बाहर” निकाल दिया गया है.

मतलब?
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उत्तर:

हर पंथ की अपनी “मर्यादा” (limitations) होती है.
यदि दृष्टि “वहीँ” तक रखी
तो “अनेकांत” पढ़ना व्यर्थ है.

सार:
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कोई भी धर्म सम्प्रदाय
किसी भी सम्प्रदाय की
“मान्यताओं” का “विरोध” ना करे.

यानि अपने अनुयायिओं को भी “गलत” शिक्षा ना दे.
सिर्फ अपनी ही “बात” सही है,
ये “घुट्टी” पिलाना बंद करे.

फिर भी यदि ऐसा हो तो क्या करें?
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ऐसे “संघ” को तिलांजलि दे दें
और अपनी “सोच” से “सच्चे धर्म” के बारे में “खोज” करें.

भगवान् महावीर ने भी “सत्य” की खोज
“स्वयं” करने के लिए कहा है.

इसका रिजल्ट क्या आएगा?
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तुरंत ही जैन समाज संगठित हो जाएगा.

फोटो: श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ, गलेमंडी, सूरत 

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